रविवार, 28 नवंबर 2021

नीदरलैंड के बच्चे दुनिया में सबसे खुशहाल क्यों हैं? भारतीय मां-बाप से अलग वहां क्या है?


आज सुबह-सुबह अखबारों को खंगाल रहा था तभी पड़ोस के मकान से एक महिला की आवाज आई- हरामजादे स्कूल के काम कब करेगा? जाहिर है ये किसी मां की आवाज थी जो अपने बच्चे की बेहतरी को लेकर चिंतित थी लेकिन तरीका वहीं अपना ठेठ देसी भारतीय. इससे पहले कि उस महिला की आलोचना मन में आती, कल की अपनी गलती याद आ गई. ठीक ऐसे ही तो डांटा था मैंने भी अपने 9 साल के बच्चे को. जो अपनी पढ़ाई में हर समय अव्वल रहता है बस हमारी पुरानी सोच के अनुरूप किताबी कीड़ा बनने से बचता रहता है.


गूगल में सर्च करने लगा कि क्या दुनिया के बाकी देशों में भी मां-बाप बच्चों को ऐसे ही हैंडल करते हैं तो हाथ लगी  UNICEF की साल 2020 की एक रिपोर्ट. जिसके अनुसार यूरोपीय देश नीदरलैंड के बच्चों को सबसे खुशहाल के रूप में आंका गया है. मन में सवाल उठा कि आखिर वहां के मां-बाप के वे कौन से तरीके हैं या स्कूली सिस्टम में ऐसा क्या फर्क है कि हमारी मार-पिटाई, डांट-फटकार वाले सिस्टम से अलग जिंदगी वहां के बच्चे जी रहे हैं और ज्यादा खुशहाल हैं, बल्कि यूं कहें कि ज्यादा सफल भी हैं.


बच्चों की ये रैंकिंग 41 अमीर देशों की स्टडी के आधार पर तैयार की गई. इसका पैमाना एकेडमिक और सोशल स्किल थी. साथ ही मानसिक स्वास्थ्य और शारीरिक स्वास्थ्य समेत वे सारे पैमाने भी थे जो स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन के लिए जरूरी हैं. नीदरलैंड के बाद डेनमार्क और नॉर्वे इस लिस्ट में दूसरे और तीसरे नंबर पर हैं. 41 देशों की इस लिस्ट में सबसे नीचे मिले चिली, बुल्गारिया और अमेरिका. नीदरलैंड आर्थिक रूप से मजबूत देश है, सामाजिक सुरक्षा के लिहाज से भी वहां सरकारें काफी जिम्मेदारियां उठाती हैं, लेकिन इसका  मतलब ये भी नहीं है कि सिर्फ पैसे से खुशहाली आती है. सिर्फ पैसे से बच्चों की खुशहाली तय होती तो अमेरिका इतना पीछे नहीं होता.


एक्सपर्ट इसका सीक्रेट बताते हैं... बच्चों के लिए स्पष्ट लिमिट यानी सीमाएं तय करें, प्रेम और संबंधों में वार्म्थ, कुछ अच्छा करने का मोटिवेशन, साथ ही उन्हें अपने भविष्य का रास्ता चुनने की आजादी दें. यही कुछ सीक्रेट्स हैं जो बच्चों की खुशहाली का रास्ता साफ करते हैं. बच्चों से खुलकर बात करें कि वे क्या करना चाहते हैं, क्या कमियां हैं, कैसे उन्हें दूर किया जा सकता है. डच लोग यानी नीदरलैंड के लोग अपने बच्चों से उन मुद्दों पर भी खुलकर बात करते हैं जिनपर एशियाई समाजों में बच्चों और पैरेंट्स के बीच एक दीवार जैसी खड़ी कर दी गई है.


इसके अलावा भी कई ऐसे फैक्टर हैं जो तय करते हैं कि बच्चों की जिंदगी खुशहाली भरी होगी या नहीं? जैसे- बच्चों पर कितना एकेडमिक बोझ है, कहीं सोशल मीडिया के प्रभाव में दूसरों के पोस्ट देखकर आप भ्रमित होकर बच्चों पर दबाव तो नहीं बना रहे हैं क्योंकि जरूरी नहीं कि सोशल मीडिया पोस्ट में लोग जितने चमकते दिख रहे हों वो सच ही हो. सोशल मीडिया के दौर में मां-बाप के लिए जरूरी है कि वे वास्तविकता की धरातल को पहचानें. बेवजह बच्चों पर दबाव न बनाएं. बच्चों को इस बात की आजादी मिले कि वो जो बनना चाहते हैं उन्हें उस दिशा में काम करने की आजादी मिले. वे सकारात्मक माहौल के लिए अपने सही दोस्त चुन सकें. उन्हें हर बात पर जज न किया जाए. खेल-कूद की भी उन्हें आजादी मिले.


नीदरलैंड स्कूलों में गलाकाट प्रतियोगिता के माहौल की जगह स्किल लर्निंग के माहौल पर जोर देने वाला देश है. मां-बाप के लिए एक्सपर्ट सलाह देते हैं कि स्कूल के स्कोर कोई आखिरी पैमाना नहीं हो सकते हैं बच्चों को आंकने के लिए. इसकी बजाय बच्चों में लर्निंग और जिज्ञासा के माहौल को बढ़ाने पर जोर दें. इस लिस्ट में तीसरे नंबर पर नॉर्वे है. नॉर्वे अपने स्कूलों में टूगैदरनेस को बढ़ावा देने के लिए जाना जाता है. मतलब अपने साथ-साथ दूसरों को भी प्रगति में मदद करने की आदत. इसके लिए परिवारों का सामुदायिक बेहतरी के कामों में योगदान देने को वहां के समाज में काफी सराहा जाता है.


हमारे एशियाई समाज इसीलिए टूटते चले गए कि हमनें न तो परिवारों को संभालने पर ध्यान दिया और न ही समाज में अच्छी आदतों, अच्छे काम और अच्छी पहल को सराहने की पहल की. और जो काम हम नहीं करते वो बच्चे कैसे सीखेंगे. हम जो गलतियां खुद करते हैं उन्हें बच्चों को नहीं करने को कहते हैं... आखिर ये कैसे संभव है कि हम कर रहे हैं और बच्चों को रोक पाएं. इसलिए सबसे जरूरी है खुद में बदलाव लाएं और फिर अच्छे बदलावों को बच्चों को समझाएं.

शनिवार, 20 नवंबर 2021

प्रदूषण से निपटना इतना मुश्किल तो नहीं, अगर सरकारों की इच्छाशक्ति हो तो?

किसी शायर ने आज के हालात को देखते हुए ही शायद लिखा था-

'सांस लेता हूं तो दम घुटता है,

कैसी बे-दर्द हवा है यारो...'




कभी महान साइंटिस्ट स्टीफन हॉकिंग ने कहा था कि दुनिया के संसाधनों का इंसान इतना ज्यादा इस्तेमाल कर रहा है कि 100 साल बाद ये धरती रहने लायक नहीं रह जाएगी और इंसान को किसी और ग्रह पर जाकर रहना होगा. आज भविष्य के इस संकट की झलक दिल्ली जैसे बड़े शहरों में एयर पॉल्यूशन यानी प्रदूषण के रूप में दिखने भी लगी है.


लेकिन दूसरे देशों में उठाए जा रहे कदमों को देखकर आप भी अंदाजा लगा सकते हैं कि आपके मुल्क में समस्याओं को हल करने के लिए जो कदम उठाए जा रहे हैं वो क्यों सफल नहीं होते?


साल 2019 में बैंकॉक शहर में प्रदूषण के हालात एकदम गंभीर अवस्था में आ गए थे. ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाली गाड़ियों पर रोक लगाई गई, बच्चों को सेफ रखने के लिए स्कूलों को बंद किया गया, फैक्ट्रियों और अन्य उद्योग धंधों में प्रदूषण की निगरानी के लिए पुलिस और सेना को तैनात कर सख्ती की गई.


कई इनोवेटिव कदम उठाए गए. प्लेन के जरिए क्लाउस सीडिंग कर कृत्रिम बरसात कराई गई और आसमान से प्रदूषण को साफ किया गया. सड़कों पर चल रहे टू-थ्री व्हीलर्स गाड़ियों को गैसोलीन की बजाय इलेक्ट्रिक गाड़ियों में बदलने के लिए कदम उठाए गए. शहर में गाड़ियां कम करने के लिए कैनल ट्रांसपोर्ट सिस्टम शुरू किया गया ताकि नहरों में नाव और फेरी चलाकर ट्रांसपोर्ट के नए विकल्प दिए जा सकें.


आज दो साल बाद वहां PM2.5 AQI लेवल 50-82 के बीच बना हुआ है. जबकि WHO के स्टैंडर्ड के अनुसार 100 से अधिक का AQI बीमार लोगों और बुजुर्गों के लिए संकट का कारण बन सकता है. इसी तरह चीन ने कार्बन डाई-ऑक्साइड सोंखने और ऑक्सीजन जेनरेशन के लिए वर्टिकल जंगल लगाए, स्मॉग टॉवर बनाए.

जंग कहां-कहां और कैसे कैसे असर डाल सकती है?

 समयकाल... साल 1941-1942 यूरोप में दूसरे महायुद्ध के छिड़े करीब दो साल हो गए थे. ब्रिटिश शासन में होने के बावजूद शुरू के दो साल भारत या दिल्...