सोमवार, 9 मई 2022

जंग कहां-कहां और कैसे कैसे असर डाल सकती है?

 समयकाल... साल 1941-1942


यूरोप में दूसरे महायुद्ध के छिड़े करीब दो साल हो गए थे. ब्रिटिश शासन में होने के बावजूद शुरू के दो साल भारत या दिल्ली के लोगों पर कुछ खास असर नहीं दिखा.. लेकिन 1941 के समाप्त होते-होते पासा पलटने लगा. जापान युद्ध में कूदा और भारत तक उसकी आंच पहुंचने लगी. दिल्ली में अमेरिकी समेत तमाम विदेशी सैनिक तैनात होने लगे. हवाई हमले से बचने के लिए बंकर और सड़कों पर खंदकें खोदी जाने लगी. दिल्ली में रोजमर्रा के लिए जरूरी सामानों की कीमतों पर असर दिखने लगा. चीनी चार आने से बढ़कर सात आने सेर हो गई. गेहूं बाजार से गायब हो गया. हर दुकानदार कसमें खाता कि दुकान में गेहूं या आटा एकदम नहीं है. लोग पहाड़गंज की गलियों में चार-चार घंटे चक्कर लगाकर जैसे तैसे महंगे दामों पर जुगाड़ कर पा रहे थे. गेहूं की तरह कोयला भी बाजार से जैसे लापता हो गया. जगह-जगह चक्कर काटकर 19 रुपये मन के हिसाब से जुगाड़ हो पा रहा था. राशनिंग की व्यवस्था लागू कर दी गई लेकिन फिर भी अगले कई महीने तक हर परिवार की जंग आटा-दाल जैसी जरूरी चीजों को जरूरत भर जुटा लेने की ही बनी रही.(एक पुस्तक का अंश...)


समयकाल... साल 2022

ये सब तब के हालात थे जब दुनिया ग्लोबल नहीं हुई थी... आज जब रूस और यूक्रेन की जंग चल रही है और कमोबेश दुनिया का हर देश किसी न किसी पक्ष में खड़ा दिख रहा है. प्रतिबंधों का दौर शुरू हो गया है. ऐसे में असर भी दिखने लगा है. आटा, दाल, तेल, चीनी जैसे राशन के सामान और पेट्रोल-डीजल जैसी चीजें फिर महंगी हुई जा रही हैं. शताब्दी बदल गई, कई दशक बीत गए लेकिन हालात जस की तस है.


हालात को बयां करतीं कविता की कुछ लाइनें...


''जंग में अर्थ का अनर्थ हो,

अर्थ के अभाव में,

दो जून रोटी की तलाश में

मानव मारा मारा फिरता,

जंग से जंग लगे विकास को,

जंग का तिलस्म देखो,

सदियों का परिश्रम,

पल में धू धू कर धुआं बने,

कहीं राख बन बिखर जाए,

धरती के लिए जंग करे इंसान

लेकिन...''

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